
नंदा होमकुंड से कैलाश के लिए विदा हो गईं- रास्ते के तमाम कष्टों व तकलीफों को झेलते हुए। लेकिन नंदा को पहुंचाने होमकुंड या शिलासमुद्र तक गए यात्रियों के लिए नंदा को छोड़कर लौटने के बाद का रास्ता ज्यादा तकलीफदेह था। भला किसने कहा था कि चढ़ने की तुलना में पहाड़ से उतरना आसान होता है! चंदनिया घाट से लाटा खोपड़ी और फिर वहां से सुतौल तक की जो उतराई थी, वैसी विकट उतराई ट्रैकिंग के बीस साल से ज्यादा के अपने अनुभव में मैंने कम ही देखी-सुनी हैं। मुश्किल यह थी कि इसका किसी को अंदाजा भी न था। डर सब रहे थे ज्यूंरागली को लेकर और हालत पतली हुई नीचे उतर कर।

ज्यूंरागली का अर्थ स्थानीय भाषा में मौत की गली होता है। रूपकुंड की तरफ से चढ़कर शिला समुद्र की ओर उतरने का यहां जो संकरा रास्ता है, ऊपर धार (दर्रे) पर मौसम का जो पल-पल बदलता विकट रुख है, उन सबको ध्यान में रखकर इसका यह नाम कोई हैरत नहीं देता। फिर रूपकुंड में बिखरे नरकंकालों के बारे में तो कहा ही जाता है कि वे सदियों पहले ज्यूंरागली पार कर रहे किसी सैन्य बल के ही हैं। हालांकि तमाम अध्ययनों के बावजूद इसपर निर्णायक रूप से कोई कुछ नहीं कह सकता। कुछ स्थानीय इतिहासकारों के अनुसार रूपकुण्ड दुर्घटना सन् 1150 में हुई थी जिसमें राजजात में शामिल होने पहुंचे कन्नौज नरेश जसधवल या यशोधवल और उनकी पत्नी रानी बल्लभा की सुरक्षा और मनोरंजन आदि के लिए सैकड़ों की संख्या में साथ आए दलबल की मौत हो गयी थी। उन्हीं के कंकाल आज भी रूपकुंड में बिखरे हुए हैं। 1942 में सबसे पहली बार पता चलने के बाद से इनपर काफी लोग शोध व डीएनए विश्लेषण तक कर चुके हैं, जिनमें नेशनल ज्योग्राफिक भी शामिल है। कुछ इतिहासकार यह भी मानते हैं कि कभी लोग स्वर्गारोहण की चाह में इसी स्थान से महाप्रयाण के लिए नीचे रूपकुंड की ओर छलांग लगाते थे। फिर लगभग 16 हजार फुट की ऊंचाई कोई कम भी तो नहीं। जाहिर था, नंदा राजजात यात्रा से पहले और यात्रा के शुरुआती दिनों के दौरान लोगों के बीच जिसका चर्चा व रोमांच सबसे ज्यादा था, वे रूपकुंड व ज्यूंरागली ही थे। लेकिन हैरानी की बात थी कि इस रास्ते पर लोग इतना परेशान नहीं हुए, जितना कि अंदेशा था। शायद यात्री, आयोजक व प्रशासन, सभी ज्यादा सतर्क थे। इसीलिए उतराई ने सबको चित्त कर दिया।

लिहाजा यह अकारण ही नहीं था कि न्यूनतम 12 साल के अंतराल पर होनी तय इस लगभग तीन सौ किलोमीटर की यात्रा के संपन्न होने के बाद, दो-तीन बातों की चर्चा सबसे ज्यादा रही- बेहद कष्टदायक उतराई और यात्रा में कई धार्मिक परंपराओं का टूटना। दबे स्वर में ही सही, इतने लोगों के एक साथ इतनी ऊंचाई पर जाने और उनके लिए होने वाले इंतजामों के पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रतिकूल असर का मुद्दा भी उठा। दूसरी बात का महत्व इसलिए भी है कि टूटती व बनती परंपराएं अगली राजजात का भी आधार बनेंगी। रही बात कष्ट की तो, ज्यादातर यात्री इसे नंदा की आराधना का ही एक पक्ष मानकर स्वीकार कर लेंगे। आखिर बात नंदा की है। नंदा कोई सामान्य देवी नहीं हैं, वह समूचे उत्तराखंड की आराध्या हैं। उत्तराखंड की समस्त देवियां उनमें समाहित हैं, वह सभी शक्तिपीठों की अधिष्ठात्री हैं। लोक इतिहास के अनुसार नंदा गढ़वाल के राजाओं के साथ-साथ कुमाऊं के कत्युरी राजवंश की ईष्टदेवी थी। ईष्टदेवी होने के कारण नंदादेवी को राजराजेश्वरी भी कहा जाता है। यहां के लोगों के लिए बेटी भी हैं, शिव पत्नी पार्वती भी हैं, सती भी हैं, पार्वती की बहन भी हैं, दुर्गा भी हैं, लक्ष्मी भी हैं और सरस्वती भी। यही कारण है कि नंदा को समस्त प्रदेश में धार्मिक व सांस्कृतिक एकता के सूत्र के रूप में भी देखा जाता है। तमाम देवियों के छत्र-छंतोलियां, डोलियां व निशान इसी वजह से इस राजजात यात्रा में हाजिरी देते हैं और नंदा को ससुराल के लिए विदा करते हैं।

नंदकेसरी में गढ़वाल व कुमाऊं की यात्राओं के मिलन और फिर वाण में लाटू के मंदिर से पहाड़ के कठिन सफर के लिए नंदा की विदाई के मौके पर भक्ति का भावनात्मक प्रवाह नंदा में स्थानीय लोगों की अगाध श्रद्धा की गवाही दे रहा था। लेकिन देश, काल, परिस्थितियों के अनुसार धार्मिक परंपराएं बदलती हैं और नंदा देवी राजजात भी इसमें कोई अपवाद नहीं। परंपराओं के बदलने की वजहें कुछ भी हो सकती हैं। जैसे शुरुआती दौर में डोलियों व छंतोलियां की संख्या सीमित थी, लेकिन कालांतर में इनका प्रतिनिधित्व बढ़ने लगा। अब उत्तराखंड के दूर-दराज के इलाकों से छंतोलियां व निशान यात्रा में शिरकत करने लगे हैं। पिछली बार यानी 2000 में कुमाऊं की राजछंतोली पहली बार राजजात में शामिल हुई थी। इस बार सुदूर पिथौरागढ़ में मर्तोली से लंबा व दुष्कर सफर करके निशान यात्रा में शामिल हुआ। ऐसे कई उदाहरण हैं।

कई इतिहासकार कहते हैं कि यात्रा में पहले नरबलि का चलन था, उसके रुकने के बाद पशुबलि चलती रही। हालांकि अब वो भी रुक गई है। वाण के आगे रिण की धार से चमड़े की वस्तुएँ जैसे जूते, बेल्ट आदि व गाजे-बाजे, स्त्रियाँ-बच्चे, अभक्ष्य पदार्थ खाने वाली जातियाँ इत्यादि राजजात में निषिद्ध हो जाया करते थे। अभक्ष्य खाने वाली जातियों का तात्पर्य छिपा नहीं है। जातिगत श्रेष्ठता का तर्क यात्रा से पूरी तरह समाप्त तो नहीं हुआ है लेकिन कम बेशक हुआ है। अब बेरोकटोक महिलाएं पूरी यात्रा करने लगी हैं। इस लिहाज से यात्रा में प्रतिनिधित्व बढ़ने से कोई हर्ज तो नहीं होना चाहिए था।

लेकिन इस बढ़ती संख्या से यात्रा के स्वरूप में भी बदलाव आया है। तमाम छंतोलियां व डोलियां अपने साथ श्रेष्ठता का एक भाव भी लाती हैं। नौटी व कुरूड़ के बीच का विवाद तो काफी समय से है। नंदा में चूंकि स्थानीय लोगों की श्रद्धा अगाध है और राजजात में शिरकत करने वालों की संख्या कई हजारों में होती है, इसलिए छंतोलियों के क्रम व उनकी स्थिति को लेकर एक होड़ सी रहती है। लोगों की भेंट व चढ़ावा भी इसकी एक वजह होते हैं। ऐसे में यात्रा का मूल क्रम ही बिगड़ गया। मान्यता यह रहती थी कि यात्रा में सबसे आगे चौसिंघा खाड़ू चलता है और उसके पीछे लाटू का निशान, गढ़वाल व कुमाऊं की राज छंतोलियां और पीछे बाकी छंतोलियां व यात्री। लेकिन इस बार ऐसा कोई क्रम न था। छंतोलियां व यात्री अपनी जरूरत व सहूलियत के हिसाब से आगे पीछे चल रहे थे और पड़ाव तय कर रहे थे। नंदा यानी मुख्य यात्रा के होमकुंड पहुंचने से पहले ही कई यात्री व छंतोलियां होमकुंड में पूजा करके वापसी की राह पकड़ चुके थे। और तो और, यात्रा में इतने खाड़ू थे कि कौन सा मुख्य है, यात्री इसी भ्रम में थे। लेकिन यह सब भी उतनी बड़ी बातें नहीं थीं, जितनी इसके पीछे के अंतिर्निहित तनाव थे। मान्यतानुसार जिन लोगों को वाण से आगे नंदा की डोली उठानी थी, उन्हें उठाने ही नहीं दी गई, लिहाजा सुतौल के द्योसिंह देवता का निशान यात्रा पूरी किए बिना ही बेदनी बुग्याल से लौट गया। बदले में विवाद की आशंका में होमकुंड से लौटते हुए नंदा की डोली सुतौल रुकी ही नहीं, सीधे घाट चली गई जिसपर लोगों में खासी नाराजगी रही। ऐसे ही कुछ और भी विवाद रहे। इंतजामों को लेकर पतर-नचैनिया व बेदिनी में लोगों की जमकर नारेबाजी व विरोध प्रदर्शन का नजारा भी अखरने वाला था।

इतनी बड़ी यात्रा में इंतजामों की कमी स्वाभाविक थी। खास तौर पर यह देखते हुए कि यात्रियों की संख्या को लेकर न कोई अनुमान था और न ही उस अनुपात में इंतजाम। फिर ऊंचाई वाले इलाके में वाण से लेकर वापस सुतौल पहुंचने तक हर दिन बारिश हुई, जिससे इंतजामों पर असर पड़ा, रास्ते में तकलीफें बढ़ीं। राहत की बात यही थी कि इस सबके बावजूद यात्रा में कहीं कोई हादसा न हुआ। लेकिन ऐसे विकट इलाके में यात्रा का लगातार बढ़ता स्वरूप पर्यावरणविदों के लिए बड़ी चिंता का सवाल है। चमोली के एडीम व मेला अधिकारी एम.एस. बिष्ट कहते हैं कि सरकारी अनुमानों के मुताबिक 20 से 25 हजार यात्री वाण से ऊपर की ओर गए। बेदिनी से ऊपर का इलाका इतना संवेदनशील है कि वहां जोर से बोलने तक के लिए मना किया जाता है। हालांकि बेदिनी बुग्याल व रूपकुंड क्षेत्र रोमांच प्रेमियों व ट्रैकर्स में बेहद लोकप्रिय है। वहां की पारिस्थितिकी और प्राकृतिक खूबसूरती को कैसे आने वाली पीढ़ियों के लिए सलामत रखा जाए, यह कम महत्व का मुद्दा नहीं।
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आस्था, रहस्य व रोमांच। नंदा देवी की राजजात यात्रा इन सबका मिला-जुला रूप है। हजारों लोगों के रेले में राह दिखाता सबसे आगे चलता चार सींग वाला काला मेढ़ा, नंदादेवी की राजछंतोली के पीछे चलती उत्तराखंड के गांवों-गांवों से आई छंतोलियां, सबके साथ वीर व पश्वाओं की टोली- भक्ति से सराबोर होकर पहाड़ों को नापती। इसे हिमालयी कुंभ भी कहा जाता है क्योंकि कुंभ की ही तर्ज पर यह यात्रा 12 साल में एक बार होती है। स्वरूप में यह यात्रा है क्योंकि इसमें शिरकत करने वाले लोग 19 दिन तक एक पड़ाव से दूसरे पड़ाव की ओर चलते रहते हैं। एशिया की इस सबसे लंबी यात्रा में लगभग तीन सौ किलोमीटर का सफर तय किया जाता है। इतना ही नहीं, इसमें से छह दिन की यात्रा हिमालय के कुछ सबसे दुर्गम, ऊंचाई वाले इलाके में की जाती है। पिछली यात्रा 2000 में हुई थी। इस लिहाज से 2012 में अगली यात्रा होनी थी। लेकिन उस साल एक मलमास (अधिक मास) के कारण यात्रा का संयोग नहीं बना। पिछले साल भी यात्रा की तारीखें तय हो गई थीं, लेकिन केदारनाथ इलाके में जो भयंकर तबाही जून में हुई थी, उसके बाद न तो प्रशासन में और न ही लोगों में यात्रा करने की हिम्मत बची थी। अब इस साल यह यात्रा हो रही है। यात्रा कब से हो रही है, इसका ठीक-ठीक कोई इतिहास नहीं मिलता। राजजात समिति के पास जो अभिलेख हैं, उनके अनुसार 1843, 1863, 1886, 1905, 1925, 1951, 1968, 1987 व 2000 में यात्रा का आयोजन हो चुका है। यानी बीते डेढ़ सौ साल में यह कभी भी 12 साल के अंतराल पर नहीं हो पाई है। जाहिर है, यह यात्रा से जुड़ी मान्यताओं व दुर्गमताओं, दोनों की वजह से है। बहरहाल, तमाम चुनौतियों का सामना करते हुए इस साल 18 अगस्त को उत्तराखंड में कर्णप्रयाग के निकट नौटी से शुरू हुई यात्रा 6 सितंबर को नौटी में ही समाप्त हुई।