होली के मौसम में जिक्र एक और अनूठी होली का। यह होली राजस्थान की है। यह है बीकानेर इलाके की तणी होली। होली में तणी को काटने की प्रथा को तकरीबन 300 साल पुराना बताया जाता है। हालांकि इसके बारे में ठीक-ठीक कहना मुश्किल है। पुराने लोग बताते हैं कि यह परंपरा रियासत काल से चली आ रही है। बताया जाता है कि इसका मकसद वहां के पुष्करणा समाज से जुड़े जोशी समुदाय के लोगों को होली की उत्सव में भागीदारी कराने से है। यहां यह मान्यता है कि होलिका जोशी समुदाय से थी इसलिए उन्हें होलिका के जल जाने का अफसोस रहता है। इसलिए इस समुदाय के लोग होली की स्थापना होने से लेकर होलिका दहन तक सब्जी में छोंक नहीं लगाते। न ही वे होलिका दहन देखने के लिए ही जाते हैं।

इसलिए उनके सगे-संबंधी जो आम तौर पर सूरदासाणी, किराडू, ओझा, छंगाणी आदि समुदायों से होते हैं, वे उनको होलिका दहन के दूसरे दिन यानी धुलेंडी को, जिस दिन रंग खेला जाता है, बुलावा देने के लिए उनके घर जाते हैं। इस रस्म के हिस्से के तौर पर शहर के नत्थूसर गेट पर एक तणी यानी डोरी बांधी जाती है। बारह गुवाड़ चौक से तमाम जातियों की पारंपरिक गैर नत्थूसर गेट तक पहुंचती है। परंपराओं के अनुसार गैर के वहां पहुंचने पर पुरोहित समाज की ओर से जोशी समुदाय के उस युवक का तिलक किया जाता है जिसे तणी काटने के लिए चुना गया होता है।

फिर रंगों की बौछार के बीच जोशी समुदाय के लोग किराडू समुदाय के लोगों के कंधे पर खड़े होकर उस तणी को काटते हैं। इसके पीछे भाव यही बताया जाता है कि होली न मनाने का जो बंधन उन लोगों के मन में है, उसे काटकर रंगों के जरिये इसे खेला जाए। तणी को उसी बंधन का प्रतीक माना जाता है, जिसे पूरे जोशोखरोश के साथ काटा जाता है। तणी काटने की प्रक्रिया के दौरान समूचा नत्थूसर गेट इलाका पारंपरिक गीतों, दोहों, संवादों से गूंजता रहता है। जैसे ही तणी काटी जाती है सब तरफ सतरंगी गुलाल से माहौल सराबोर हो जाता है। लोग एक दूसरे को गले मिलकर होली की बधाई देते हैं। उधर तणी काटने वाले युवक को बाकायदा मेघराज पुरोहित सूरदासाणी की स्मृति में तणी वीर सम्मान भी दिया जाता है। यह उत्सव आपको बरबस महाराष्ट्र में जन्माष्टमी पर गोविंदा के मटकी फोड़ की याद दिला देगा।

अब इसमें अनूठी बात यह भी है कि इस परंपरा की नींव तो किसी जाति विशेष के कारण पड़ी होगी लेकिन इसमें धीरे-धीरे सारे समुदायों के लोग जुड़ते गए और अब तो यह पूरे शहर का उत्सव हो गया है। लेकिन बीकानेर की होली के रंग केवल तणी होली तक भी सीमित नहीं है। इसकी और भी छटाएं हैं। यहां होलाकाष्टक का पूरा समय मस्ती, उल्लास, अल्हड़ता के बिताया जाता है। यहां होली पर गैर होता है, रम्मतें चलती हैं, स्वांग किया जाता है… यानी कुल मिलाकर होली पर जमकर मस्ती होती है। एक ही शहर में होली के इतने सारे अलग-अलग रंग आपको शायद भारत में किसी और जगह पर देखने को नहीं मिलेंगे।

नौ दिन तक होली
बीकानेर में होली का त्योहार नौ दिन तक मनाया जाता है। फाल्गुन माह में खेलनी सप्तमी से शुरू हुआ यह त्योहार धुलंडी के दिन तक चलता रहता है। यहां के शाकद्विपीय ब्राह्मण खेलनी सप्तमी के दिन मरुनायक चौक में ‘थम्ब पूजन’ करते हैं। इसके साथ ही होली के त्योहार की शुरुआत हो जाती है। चूंकि शाकद्विपीय समाज के लोग बीकानेर के मंदिरों के पुजारी हैं, लिहाजा शहर के प्राचीन नागणेची मंदिर में धूमधाम से पूजा की जाती है और मां को गुलाल अबीर से होली खेलाई जाती है। इस फागोत्सव के बाद पुरुष चंग बजाते हुए व फाग के गीत गाते हुए शहर में प्रवेश करते हैं और होली के प्रारंभ की सूचना देते हैं।

रम्मतों का दौर
होली के दिनों में होने वाली रम्मतों के कारण बीकानेर को रम्मतों का शहर कहा जाता है। होलकाष्टक के दिनों में शहर के प्रत्येक चौक में किसी न किसी रम्मत का आयोजन अवश्य होता है। रम्मत नाटक की एक विधा है जिसमें पात्र अभिनय करते हैं। रम्मत में पात्रों द्वारा गद्य विधा में संवाद बोले जाते हैं और ख्याल, लावणी, चौमासे गाए जाते हैं। रम्मत में किसी न किसी कथानक का सहारा लेकर भी अभिनय होता है।

डोलची पानी का खेल
बीकानेर की होली का सबसे बड़ा आकर्षण होता है पुष्करणा समाज की हर्ष व व्यास जातियों के बीच खेला जाने वाला डोलची पानी का खेल। ‘डोलच’ चमड़े का बना पात्र होता है जिसमें पानी भरा जाता है। इस डोलची में भरे पानी को पूरी ताकत के साथ सामने वाले की पीठ पर मारा जाता है। हर्षों के चौक में होने वाले इस खेल को देखने के लिए भारी भीड़ उमड़ती है। करीब चार सौ साल से चल रहे इस आयोजन के पीछे जातीय संघर्ष से जुड़ा हुआ इतिहास है।


All photos by Ajay Kashyap, a photographer based in Bikaner
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These images are absolutely amazing. Thank you for sharing. Just beautiful.
Thanks a lot Sylvia!